ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए