इतने भी हम ख़राब न होते रहते
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की