इतने भी हम ख़राब न होते रहते
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
न समझा गया अब्र क्या देख कर
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन