हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न समझा गया अब्र क्या देख कर
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़