न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
न समझा गया अब्र क्या देख कर
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया