करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा