जिस पर तमाम उम्र बहुत नाज़ था मुझे
मेरा वो इल्म मेरी सिफ़ारिश न बन सका
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मुझ को याद रहा तू भूला
रंज-ओ-ग़म से जो बे-ख़बर होता
एक मुद्दत से उसे हम ने जुदा रक्खा है
शाम हुई तो सूरज सोचे
भीक दे कर न जाने क्या लेंगे
शंकर बना के लोग मुझे पूजते रहे
पहली साँस पे मैं रोया था आख़िरी साँस पे दुनिया
तेरे मेरे बीच नहीं है ख़ून का रिश्ता फिर भी क्यूँ
दिल धड़कने का सबब क्या होगा
तेरी चाहत की है इतनी शिद्दत
सारी बे-रंग सोच के चेहरे