खा जाएगा ये जान को आज़ार देखना
पहरों किसी को सूरत-ए-दीवार देखना
आहट सी एक पाना दर-ए-जाँ के आस-पास
साया सा इक फ़सील के उस पार देखना
मेरे लिबास में कभी फिर कर गली गली
मेरी नज़र से शहर का किरदार देखना
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बीते बरस की याद का पैकर उतार दे
इक पल की दौड़ धूप में ऐसा थका बदन
क़दम क़दम पर की रुस्वाई फिसला हर इक ज़ीने पर
सूरज चढ़ा तो दिल को अजब वहम सा हुआ
बदन की ओट से तकने लगा है
हो रहा है पस-ए-दीवार भी कुछ
वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का
में भी तलाश-ए-आब-ए-हवस में निकला हूँ
लफ़्ज़ छिन जाएँ मगर तहरीर हो रौशन जहाँ
बहुत लम्बी मसाफ़त है बदन की
कुछ न कुछ अहद-ए-मोहब्बत का निशाँ रह जाए
जी चाहता है हाथ लगा कर भी देख लें