तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा