इक शिकस्ता से मक़बरे के क़रीब
इक हसीं जूएबार बहती है
मौत कितनी मुदाख़लत भी करे
ज़िंदगी बे-क़रार रहती है
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जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ 'अदम'
गोरियों कालियों ने मार दिया
ज़ीस्त दामन छुड़ाए जाती है
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
मैं यूँ तलाश-ए-यार में दीवाना हो गया
गुल्सितानों में घूम लेता हूँ
जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है
मुफ़लिसों को अमीर कहते हैं
मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
मिरे दिल की उदास वादी में
हम और लोग हैं हम से बहुत ग़ुरूर न कर