हबीब मूसवी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का हबीब मूसवी (page 2)
नाम | हबीब मूसवी |
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अंग्रेज़ी नाम | Habeeb Musvi |
फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
दिल में भरी है ख़ाक में मिलने की आरज़ू
दिल लिया है तो ख़ुदा के लिए कह दो साहब
दश्त-ओ-सहरा में हसीं फिरते हैं घबराए हुए
चाँदनी छुपती है तकयों के तले आँखों में ख़्वाब
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
बरहमन शैख़ को कर दे निगाह-ए-नाज़ उस बुत की
बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है
असल साबित है वही शरअ' का इक पर्दा है
वो यूँ शक्ल-ए-तर्ज़-ए-बयाँ खींचते हैं
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
उस से क्या छुप सके बनाई बात
शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है
शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी
क़त्अ होता रहे इस तरह बयान-ए-वाइज़
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
कोई बात ऐसी आज ऐ मेरी गुल-रुख़्सार बन जाए
किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर
जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा
जब शाम हुई दिल घबराया लोग उठ के बराए सैर चले
हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है
है निगहबाँ रुख़ का ख़ाल-रू-ए-दोस्त
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
फ़िराक़ में दम उलझ रहा है ख़याल-ए-गेसू में जांकनी है