है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
ऐ बे-ख़बरी की नींद सोने वालो
अहमद का मक़ाम है मक़ाम-ए-महमूद
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
तारीक है रात और दुनिया ज़ख़्ख़ार
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी