आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
इक ज़रा रसमसा के सोते में
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
चंद लम्हों को तेरे आने से