याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
एक कम-सिन हसीन लड़की का