अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
अब वक़्त-ए-सुरूर- ओ फ़रहत-अंदोज़ी है
हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
अंजाम पे अपने आह-ओ-ज़ारी कर तू
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
जो मर्तबा अहमद के वसी का देखा
क्यूँ-कर दिल-ए-ग़म-ज़दा न फ़रियाद करे
हुशियार है सब से बा-ख़बर है जब तक
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
गुलशन में फिरूँ कि सैर-ए-सहरा देखूँ