हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न समझा गया अब्र क्या देख कर
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर