हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
जैसे कि जानता हो क़ज़ा का है रुख़ किधर
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कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
वो अंधी राह में बीनाइयाँ बिछाता रहा
मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
कितने ज़ेहनों को कर गया गुमराह
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे