चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला
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दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मिरी
कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
शो'ले हैं कहीं तेज़ कहीं हैं मद्धम
लबों पर तबस्सुम तो आँखों में आँसू थी धूप एक पल में तो इक पल में बारिश
क़ब्र-ए-दर-ओ-दीवार से आगे निकले
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार
वो पास हो के दूर है तो दूर हो के पास
मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में
मिलता नहीं मुझ को नक़्श अपना मुझ में
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा