Ghazal Poetry (page 7)
बदन को छू लें तिरे और सुर्ख़-रू हो लें
बात बह जाने की सुन कर अश्क बरहम हो गए
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं
शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया
किस तवक़्क़ो' पे शरीक-ए-ग़म-ए-याराँ होंगे
फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले
दिल महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम नहीं है
सर्द आहों ने मिरे ज़ख़्मों को आबाद किया
नज़र से छुप गए दिल से जुदा तो होना था
किस के नग़्मे गूँजते हैं ज़िंदगी के साज़ में
जज़्बा-ए-दर्द-ए-मुहब्बत ने अगर साथ दिया
जाम ख़ाली हैं मय-ए-नाब कहाँ से लाऊँ
इज़हार-ए-हाल सुन के हमारा कभी कभी
हर वो हंगामा ना-गहाँ गुज़रा
घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे
न शिकवा लब तक आएगा न नाला दिल से निकलेगा
एक है फिर भी है ख़ुदा सब का
दाग़-ए-दिल दाग़-ए-तमन्ना मिल गया
ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
वक़्त के पास कहाँ सारे हवाले होंगे
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
तुम जो छालों की बात करते हो
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
टेक लगा कर बैठा हूँ मैं जिस बूढ़ी दीवार के साथ
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
सिलसिला-दर-सिलसिला जुज़्व-ए-अदा होना ही था
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
रहरव-ए-राह-ए-ख़राबात-ए-चमन
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
पुराने रंग में अश्क-ए-ग़म ताज़ा मिलाता हूँ
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
मुझ को तेरी चाहत ज़िंदा रखती है
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
मुझे ज़मान-ओ-मकाँ की हुदूद में न रख
ज़ुल्फ़िकार नक़वी