पाँव से लग के खड़ी है ये ग़रीब-उल-वतनी
उस को समझाओ कि हम अपने वतन आए हैं
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सुब्ह-ए-तरब तो मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़र गई
पय-ब-पय तलवार चलती है यहाँ आफ़ात की
मैं अपनी रूह में उस को बसा चुका इतना
किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
दिलों में आग लगाओ नवा-कशी ही करो
जुरअत कहाँ कि अपना पता तक बता सकूँ
आ बसे कितने नए लोग मकान-ए-जाँ में
क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से
कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं