Love Poetry (page 196)
एक ख़्वाहिश
बशर नवाज़
अज़ल-ता-अबद
बशर नवाज़
अबदियत
बशर नवाज़
ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में
बशर नवाज़
क्या क्या लोग ख़ुशी से अपनी बिकने पर तय्यार हुए
बशर नवाज़
कोई सनम तो हो कोई अपना ख़ुदा तो हो
बशर नवाज़
जब कभी होंगे तो हम माइल-ए-ग़म ही होंगे
बशर नवाज़
जब छाई घटा लहराई धनक इक हुस्न-ए-मुकम्मल याद आया
बशर नवाज़
जाने क्या देखा था मैं ने ख़्वाब में
बशर नवाज़
हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा
बशर नवाज़
घटती बढ़ती रौशनियों ने मुझे समझा नहीं
बशर नवाज़
दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा
बशर नवाज़
चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो
बशर नवाज़
छेड़ा ज़रा सबा ने तो गुलनार हो गए
बशर नवाज़
बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग
बशर नवाज़
बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
बशर नवाज़
ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
बशर नवाज़
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है
बशर नवाज़
आहट पे कान दर पे नज़र इस तरह न थी
बशर नवाज़
ख़ुद-फ़रोशी को जो तू निकले ब-शक्ल-ए-यूसुफ़
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
हम तो अपनों से भी बेगाना हुए उल्फ़त में
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
अगर हयात है देखेंगे एक दिन दीदार
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ तिश्ना-ए-दीदार-ए-यार का
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
वो शाह-ए-हुस्न जो बे-मिस्ल है हसीनों में
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
रंग से पैरहन-ए-सादा हिनाई हो जाए
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़