वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
ईद-ए-रमज़ाँ है आज बा-ऐश-ओ-सुरूर
इक आलम-ए-ख़्वाब ख़ल्क़ पर तारी है
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
मजमूआ-ए-ख़ार-ओ-गुल है ज़ेब-ए-गुलज़ार
दर-अस्ल कहाँ है इख़्तिलाफ़-ए-अहवाल
रात
दाल की फ़रियाद
मकशूफ़ हुआ कि दीद हैरानी है
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर