अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
तितली कोई बे-तरह भटक कर
रात जब भीग के लहराती है
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
इक ज़रा रसमसा के सोते में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम