रात जब भीग के लहराती है
चंद लम्हों को तेरे आने से
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
तितली कोई बे-तरह भटक कर
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
हाए ये तेरे हिज्र का आलम