शर्म दहशत झिझक परेशानी
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
उस के और अपने दरमियान में अब
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
सर में तकमील का था इक सौदा