ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
सर में तकमील का था इक सौदा
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
साल-हा-साल और इक लम्हा
शर्म दहशत झिझक परेशानी
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल