हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब