तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
सुना है चाह का दावा तुम्हारा