सब जहाँगीर नियामों से निकल आएँगे
अब तो ज़ंजीर हिलाते हुए डरता हूँ मैं
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वो तंज़ को भी हुस्न-ए-तलब जान ख़ुश हुए
चाहता हूँ मैं तशद्दुद छोड़ना
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
अब इसे ग़र्क़ाब करने का हुनर भी सीख लूँ
दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
आइने का सामना अच्छा नहीं है बार बार
इश्क़ क्या है ख़ूबसूरत सी कोई अफ़्वाह बस
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
कबूतरों में ये दहशत कहाँ से दर आई
मौसम-ए-वज्द में जा कर मैं कहाँ रक़्स करूँ