तौक़-ए-बदन उतार के फेंका ज़मीं से दूर
दुनिया के साथ चलने से इंकार कर दिया
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सब जहाँगीर नियामों से निकल आएँगे
क़ाएदे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
वो अपने शहर-ए-फ़राग़त से कम निकलता है
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी
किनारे पाँव से तलवार कर दी
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
हमें बुरा नहीं लगता सफ़ेद काग़ज़ भी
कोई समझाए मिरे मद्दाह को
रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
फ़लक का थाल ही हम ने उलट डाला ज़मीं पर
मैं ख़ानक़ाह-ए-बदन से उदास लौट आया
सहरा ओ शहर सब से आज़ाद हो रहा हूँ