उस ने हँस कर हाथ छुड़ाया है अपना
आज जुदा हो जाने में आसानी है
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इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
ख़ुदा मुआफ़ करे सारे मुंसिफ़ों के गुनाह
वो तंज़ को भी हुस्न-ए-तलब जान ख़ुश हुए
दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
मुझ को भी पहले-पहल अच्छे लगे थे ये गुलाब
सहरा ओ शहर सब से आज़ाद हो रहा हूँ
ऐसी ही एक शब में किसी से मिला था दिल
सुना है शोर से हल होंगे सारे मसअले इक दिन
मुझे कुछ याद आता है
ख़ुदा मुआफ़ करे ज़िंदगी बनाते हैं
अब ऐसी वैसी मोहब्बत को क्या सँभालूँ मैं