अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अरशद अली ख़ान क़लक़ (page 3)

अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अरशद अली ख़ान क़लक़ (page 3)
नामअरशद अली ख़ान क़लक़
अंग्रेज़ी नामArshad Ali Khan Qalaq

बे-सबब ग़ुंचे चटकते नहीं गुलज़ारों में

बे-अब्र रिंद पीते नहीं वाइ'ज़ो शराब

बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के

बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं

बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे

बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा

अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही

ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में

ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं

अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता

अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता

अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का

आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार

आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल

ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह

ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत

ये बारीक उन की कमर हो गई

यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा

यगाना उन का बेगाना है बेगाना यगाना है

वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की

वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप

था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ

तासीर जज़्ब मस्तों की हर हर ग़ज़ल में है

सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर

सितम वो तुम ने किए भूले हम गिला दिल का

शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है

सैर करते उसे देखा है जो बाज़ारों में

साफ़ बातों से हो गया मा'लूम

रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम

रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का

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