बदला नहीं कोई भेस नाचारी से
आजिज़ है ख़याल और तफ़क्कुर-ए-हैराँ
इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते
होती नहीं फ़िक्र से कोई अफ़्ज़ाइश
जो तेज़ क़दम थे वो गए दूर निकल
आया हूँ मैं जानिब-ए-अदम हस्ती से
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
अहमद का मक़ाम है मक़ाम-ए-महमूद
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
चक्खी भी है तू ने दुर्द-ए-जाम-ए-तौहीद
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी
मुलम्मा की अँगूठी