मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 6)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
ने हाथ मिरा हाथ है ने जेब मिरी जेब
नाज़ुक है मेरा शीशा-ए-दिल इस क़दर कि बस
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
नसीम मुज़्तरिब-उल-हाल जाए थे पीछे
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
नमली और न दूदी है न मंशारी है
नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
न आया शाम भी घर फिर के अपने
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म