मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 5)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म