मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 3)

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 3)
नाममुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
अंग्रेज़ी नामMushafi Ghulam Hamdani
जन्म की तारीख1751
मौत की तिथि1824
जन्म स्थानAmroha

तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत

तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो

ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को

तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं

तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़

तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म

तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन

तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना

तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज

तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े

तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर

तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से

तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को

तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह

तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की

तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी

तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ

ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं

तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़

सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल

सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने

सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच

सूख कर रह गया है काग़ज़ वार

सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की

सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ

सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती

शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ

शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी

शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो

शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा

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