मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 4)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
सौ बार गया मैं उस के दर पर
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
सल्तनत और ही माने रखती है
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर