Ghazal Poetry (page 457)
दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा
मुस्तफ़ा ज़ैदी
चले तो कट ही जाएगा सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
मुस्तफ़ा ज़ैदी
बुज़ुर्गो, नासेहो, फ़रमाँ-रवाओ
मुस्तफ़ा ज़ैदी
बुझ गई शम-ए-हरम बाब-ए-कलीसा न खुला
मुस्तफ़ा ज़ैदी
बैठा हूँ सियह-बख़्त ओ मुकद्दर इसी घर में
मुस्तफ़ा ज़ैदी
अब भी हुदूद-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से गुज़र गया
मुस्तफ़ा ज़ैदी
आँधी चली तो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा नहीं मिला
मुस्तफ़ा ज़ैदी
वो तमाशा आप की जादू-बयानी से हुआ
मुस्तफ़ा शहाब
उसे देखा तो हर बे-चेहरगी कासा उठा लाई
मुस्तफ़ा शहाब
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
मुस्तफ़ा शहाब
क़लम भी रौशनाई दे रहा है
मुस्तफ़ा शहाब
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
मुस्तफ़ा शहाब
पुराने घर में नया घर बसाना चाहता है
मुस्तफ़ा शहाब
फूल ने मुरझाते मुरझाते कहा आहिस्ता से
मुस्तफ़ा शहाब
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
मुस्तफ़ा शहाब
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
मुस्तफ़ा शहाब
कैसे पता चलेगा अगर सामना न हो
मुस्तफ़ा शहाब
जब उस ने आने का इक दिन इधर इरादा किया
मुस्तफ़ा शहाब
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
मुस्तफ़ा शहाब
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
मुस्तफ़ा शहाब
इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
मुस्तफ़ा शहाब
धूप सी उम्र बसर करना है
मुस्तफ़ा शहाब
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
मुस्तफ़ा शहाब
अक्स देखा तो लगा कोई कमी है मुझ में
मुस्तफ़ा शहाब
वो राहें जिन से अभी तक नहीं गुज़र मेरा
मुस्लिम सलीम
मुझ को कहाँ गुमान गुज़रता कि मैं भी हूँ
मुस्लिम सलीम
जुस्सा-ए-तहय्युर को लफ़्ज़ में जकड़ते हैं
मुस्लिम सलीम
हुई जो शाम रास्ते घरों की सम्त चल पड़े
मुस्लिम सलीम
हस्सास दिल था ताब-ए-नज़्ज़ारा बिखर गई
मुस्लिम सलीम
अब जो सोया तो ये करूँगा मैं
मुस्लिम सलीम