ग़ुलाम मुर्तज़ा राही कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ग़ुलाम मुर्तज़ा राही (page 2)

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ग़ुलाम मुर्तज़ा राही (page 2)
नामग़ुलाम मुर्तज़ा राही
अंग्रेज़ी नामGhulam Murtaza Rahi
जन्म की तारीख1937

हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़

हम-सरी उन की जो करना चाहे

गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है

एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है

एक दिन दरिया मकानों में घुसा

दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास

दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक

देखने सुनने का मज़ा जब है

चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ

चाहता है वो कि दरिया सूख जाए

अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है

अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ

ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ

अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई

अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है

अब और देर न कर हश्र बरपा करने में

आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल

वही साहिल वही मंजधार मुझ को

उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल

ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले

शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे

रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से

राह से मुझ को हटा कर ले गया

क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया

पेड़ अगर ऊँचा मिलता है

पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए

नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं

नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई

न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है

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