Coupletss of Saleem Ahmed

Coupletss of Saleem Ahmed
नामसलीम अहमद
अंग्रेज़ी नामSaleem Ahmed
जन्म की तारीख1927
मौत की तिथि1983
जन्म स्थानKarachi

ज़मीं यख़-बस्ता हो जाती है जब जाड़ों की रातों में

ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग

ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं

ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ

याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक

वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई

वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे

वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी

उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे

उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई

तू शीशा बने कि संग कुछ बन

शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए

साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके

सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से

सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया

साए को साए में गुम होते तो देखा होगा

सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को

रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश

रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से

क़ुर्ब-ए-बदन से कम न हुए दिल के फ़ासले

क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने

निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे

नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी

न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था

मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम

मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने

मुझे गिला न किसी संग का न आहन का

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं

मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर

मंज़िल का पता है न किसी राहगुज़र का

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