Sad Poetry (page 181)
छेड़ा ज़रा सबा ने तो गुलनार हो गए
बशर नवाज़
बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग
बशर नवाज़
बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
बशर नवाज़
ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
बशर नवाज़
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है
बशर नवाज़
आहट पे कान दर पे नज़र इस तरह न थी
बशर नवाज़
जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
हम तो अपनों से भी बेगाना हुए उल्फ़त में
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ तिश्ना-ए-दीदार-ए-यार का
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
क़मर की वो ख़ुर्शीद तस्वीर है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
जब अयाँ सुब्ह को वो नूर-ए-मुजस्सम हो जाए
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
चाँद सा चेहरा जो उस का आश्कारा हो गया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
दिन-रात पड़ा रहता हूँ दरवाज़े पे अपने
बर्क़ देहलवी
हिन्द के जाँ-बाज़ सिपाही
बर्क़ देहलवी
दिल जो सूरत-गर-ए-मअ'नी का सनम-ख़ाना बने
बर्क़ देहलवी
ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
बाक़ी सिद्दीक़ी
तेरी हर बात पे चुप रहते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी
तेरे ग़म से तो सुकून मिलता है
बाक़ी सिद्दीक़ी
राज़-ए-सर-बस्ता है महफ़िल तेरी
बाक़ी सिद्दीक़ी
हो गए चुप हमें पागल कह कर
बाक़ी सिद्दीक़ी