मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 19)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
---|---|
अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
आसमाँ को निशाना करते हैं
आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम वो था शुस्ता-मिज़ाज
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा
आँखों को फोड़ा डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
आलम के मुरक़्क़ा को किया सैर मैं लेकिन
आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर