ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ग़ुलाम मौला क़लक़ (page 3)

ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ग़ुलाम मौला क़लक़ (page 3)
नामग़ुलाम मौला क़लक़
अंग्रेज़ी नामGhulam Maula Qalaq

दामन से गुल-ए-ताज़ा महकते निकले

बे-बर्ग-ओ-नवा की शेर-ख़्वानी मा'लूम

बानो ने कहा क़तरा नहीं शीर का है

ऐ पर्दा-नशीं सहल हुआ ये इश्काल

ऐ चश्म-ए-ग़मीं तेरे एवज़ रोए कौन

ऐ अब्र कहाँ तक तिरे रस्ते देखें

अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'

अफ़्साना-ए-यार बहर-ए-वसलत है लज़ीज़

आलूदा ख़यालात में तेरे हूँ मुदाम

ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं

ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में आ गए हम भी

वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा

वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे

वाइ'ज़ ये मय-कदा है न मस्जिद कि इस जगह

वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया

उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र

तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो

तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही

तू देख तो उधर कि जो देखा न जाए फिर

तिरी नवेद में हर दास्ताँ को सुनते हैं

तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला

शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर

रहम कर मस्तों पे कब तक ताक़ पर रक्खेगा तू

पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ

पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने

नाला करता हूँ लोग सुनते हैं

न ये है न वो है न मैं हूँ न तू है

न लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी

न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है

मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का

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