सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम (page 2)
नाम | सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम |
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अंग्रेज़ी नाम | Syed Yusuf Ali Khan Nazim |
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
जाती नहीं है सई रह-ए-आशिक़ी में पेश
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
ईद के दिन जाइए क्यूँ ईद-गाह
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ