वलीउल्लाह मुहिब कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का वलीउल्लाह मुहिब (page 2)

वलीउल्लाह मुहिब कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का वलीउल्लाह मुहिब (page 2)
नामवलीउल्लाह मुहिब
अंग्रेज़ी नामWaliullah Muhib

काफ़िर हूँ गर मैं नाम भी का'बे का लूँ कभी

का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप

काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला

काबा जाने की हवस शैख़ हमें भी है वले

जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा

जो अपने जीते-जी को कुएँ में डुबोइए

जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक

जलता है कि ख़ुर्शीद की इक रोटी हो तय्यार

जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की

इस्लाम में ये कैसा इंकार कुफ़्र से है

इश्क़ जब दख़्ल करे है दिल-ए-इंसाँ में 'मुहिब'

इस ख़ानुमाँ-ख़राब को भी दे मियाँ बता

इन दो के सिवा कोई फ़लक से न हुआ पार

हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे

हो गधे पर सवार जा काबा

हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात

हम-दिगर मोमिन को है हर बज़्म में तकफ़ीर-ए-जंग

है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं

गिरते हैं दुख से तेरी जुदाई के वर्ना ख़ैर

ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है

फ़स्ल ख़िज़ाँ में बाग़-ए-मज़ाहिब की की जो सैर

दोस्ती छूटे छुड़ाए से किसू के किस तरह

दीवानगी के सिलसिला का होए जो मुरीद

दीं से पैदा कुफ़्र है और नूर शक्ल-ए-नार है

दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह

दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह

दरिया-ए-मोहब्बत से 'मुहिब' ले ही के छोड़ी

दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में

चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में

बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में

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