Couplets Poetry (page 303)
बात कहने की हमेशा भूले
मोहसिन भोपाली
ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
मोहसिन भोपाली
अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है
मोहसिन भोपाली
वो मजबूरी मौत है जिस में कासे को बुनियाद मिले
मोहसिन असरार
तू ख़ुद भी जागता रह और मुझ को भी जगाता रह
मोहसिन असरार
तेरी ही तरह आता है आँखों में तिरा ख़्वाब
मोहसिन असरार
तेरे बग़ैर लगता है गोया ये ज़िंदगी
मोहसिन असरार
'मोहसिन' बुरे दिनों में नया दोस्त कौन हो
मोहसिन असरार
मैं बैठ गया ख़ाक पे तस्वीर बनाने
मोहसिन असरार
क्या ज़माना था कि हम ख़ूब जचा करते थे
मोहसिन असरार
ख़ुद को मैं भला ज़ेर-ए-ज़मीं कैसे दबाता
मोहसिन असरार
जिस लफ़्ज़ को मैं तोड़ के ख़ुद टूट गया हूँ
मोहसिन असरार
जिस दिन के गुज़रते ही यहाँ रात हुई है
मोहसिन असरार
जवाब देता है मेरे हर इक सवाल का वो
मोहसिन असरार
जैसे सज्दे में क़त्ल हो कोई
मोहसिन असरार
जगह बदलने से हैअत कहाँ बदलती है
मोहसिन असरार
हम अपने ज़ाहिर ओ बातिन का अंदाज़ा लगा लें
मोहसिन असरार
हवा चराग़ बुझाने लगी तो हम ने भी
मोहसिन असरार
हम-साए का सुख तो उस के ख़्वाब का पूरा होना है
मोहसिन असरार
घर में रहना मिरा गोया उसे मंज़ूर नहीं
मोहसिन असरार
डर है कहीं मैं दश्त की जानिब निकल न जाऊँ
मोहसिन असरार
बहुत कुछ तुम से कहना था मगर मैं कह न पाया
मोहसिन असरार
बहुत अच्छा तिरी क़ुर्बत में गुज़रा आज का दिन
मोहसिन असरार
अजीब शख़्स था लौटा गया मिरा सब कुछ
मोहसिन असरार
आँख से आँख मिलाना तो सुख़न मत करना
मोहसिन असरार
फिर जवानी है अभी कुछ है लड़कपन उन का
मोहम्मद ज़करिय्या ख़ान
क्या जानिए क्या लुत्फ़ है चिलमन के इधर आज
मोहम्मद ज़करिय्या ख़ान
ज़ुल्फ़ के पेच में लटके हुए शाएर का वजूद
मोहम्मद यूसुफ़ पापा
यहाँ जितने हैं अपने बाप के हैं
मोहम्मद यूसुफ़ पापा
मार लाता है जूतियाँ दो चार
मोहम्मद यूसुफ़ पापा