Rubaai Poetry (page 8)

क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर

इस्माइल मेरठी

क़ाएम रखें आसूदा मकाँ हम दोनों

फ़रीद परबती

क़ब्र-ए-दर-ओ-दीवार से आगे निकले

अकबर हैदराबादी

पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू

मीर अनीस

पुश्त-ओ-शिकम-ओ-चश्म-ओ-लब-ओ-गोश-ओ-दहान

मंज़ूर हुसैन शोर

पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी

इस्माइल मेरठी

पुर-हौल-शिकम अरीज़ सीने वालो

जोश मलीहाबादी

पूछूँगी कोई बात न मुँह खोलूँगी

सना गोरखपुरी

प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक

फ़िराक़ गोरखपुरी

पीरी में शबाब की निशानी न मली

अहमद हुसैन माइल

पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा

जोर्ज पेश शोर

पीरी की सपेदी है कि मरता हूँ मैं

बयान मेरठी

फूलों से तमीज़-ए-ख़ार पैदा कर लें

जगत मोहन लाल रवाँ

फूलों की सुहाग सेज ये जोबन रस

फ़िराक़ गोरखपुरी

फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को

सादिक़ैन

फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है

मुनीर शिकोहाबादी

फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में

अख़्तर अंसारी

फिर चर्ख़ पर आसमान-ए-पीर आया है

मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

फिर अपनी तमन्नाओं का धागा टूटा

बाक़र मेहदी

फैली है अजब आग तुझे इस से क्या

फ़रीद परबती

फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है

नज़ीर बनारसी

पाते जाना है और न खोते जाना

फ़िराक़ गोरखपुरी

पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र

सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़

पस उस के गए सिपर जो हम कर सीना

नज़ीर अकबराबादी

परवाने को धुन शम्अ को लौ तेरी है

मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

परवाने कहाँ मरते बिछड़ते पहुँचे

यगाना चंगेज़ी

पानी में है आग का लगाना दुश्वार

इस्माइल मेरठी

पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग

फ़िराक़ गोरखपुरी

पान उस के लबों पे इस क़दर है ज़ेबा

नज़ीर अकबराबादी

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